Mar 27, 2014

पानी लाया, कपड़े धो लो...


लोहे का घर ऐसे-ऐसे दृश्य दिखाता है कि कलेजा हिल जाता है! सुबह का समय था। प्लेटफॉर्म में गाड़ी रूकी थी। दूर एक गरीब महिला कपड़े साफ़ कर रही थी। उसका एक या दो वर्ष का नन्हाँ बालक सामने रखे प्लास्टिक के ड्रम से निकालकर लागातार लोटे में पानी लाये जा रहा था। माँ दुखी मन से कपड़े धोये जा रही थी। इन दृश्यों को देखकर बचपन में अपनी पाठ्य-पुस्तक में पढ़ी स्व0 अयोध्यासिंह उपाध्याय हरिऔध की लिखी यह बाल कविता याद आ गई। जिसमें कवि कल्पना करता है कि माँ अपने बच्चे को जगाती है, मुँह धोने के लिए पानी लाती है और यह गीत गाती है....

उठो लाल अब आँखें खोलो,
पानी लाई हूँ, मुँह धो लो।



यहाँ तो 'लाल' कह रहा है...

रूको माँ! अब आँसू पोछो
पानी लाया,  कपड़े धो लो।
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2 comments:

  1. कई तरह से जिंदगी में लालों का पालन पोषण होता है, आपकी येक लाइन ये स्पष्ट कराती है.दिल छूने वाला एहसास !

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